(१)
आभूषण हैं वदन का, रक्खो मूछ सँवार,
बिना मूछ के मर्द का, जीवन है बेकार।
जीवन है बेकार, शिखण्डी जैसा लगता,
मूछदार राणा प्रताप, ही अच्छा दिखता,
कह ‘मंयक’ मूछों वाले, ही थे खरदूषण ,
सत्य वचन है मूछ, मर्द का है आभूषण।
(२)
पाकर मूछें धन्य हैं, वन के राजा शेर,
खग-मृग सारे काँपते, भालू और बटेर।
भालू और बटेर, केसरि नही कहलाते,
भगतसिंह, आजाद मान, जन-जन में पाते।
कह ‘मयंक’ मूछों से रौब जमाओ सब पर,
रावण धन्य हुआ जग में, मूछों को पा कर।
(३)
मूछें बिकती देख कर, हर्षित हुआ ‘मयंक’,
सोचा-मूछों के बिना, चेहरा लगता रंक।
चेहरा लगता रंक, खरीदी तुरन्त हाट से,
ऐंठ-मैठ कर चला, रौब से और ठाठ से।
कह ‘मंयक’ आगे का, मेरा हाल न पूछें,
हुई लड़ाई, मार-पीट में, उखड़ थी मूछें।
2 comments:
बहुत खूब , अच्छा गुणगान किया आपने । सुन्दर रचना । बधाई
बहुत बढिया रहा आपका ये मूंछ पुराण.......
एक टिप्पणी भेजें