सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।
अनुबन्ध आज सारे, बाजार हो गये हैं।।
न वो प्यार चाहता है,
न दुलार चाहता है,
जीवित पिता से पुत्र,
अब अधिकार चाहता है,
सब टूटते बिखरते, परिवार हो गये हैं।
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।
घूँघट की आड़ में से, दुल्हन का झाँक जाना,
भोजन परस के सबको, मनुहार से खिलाना,
ये दृश्य देखने अब, दुश्वार हो गये हैं।
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।
वो सास से झगड़ती, ससुरे को डाँटती है,
घर की बहू किसी का, सुख-दुख न बाटँती है,
दशरथ, जनक से ज्यादा लाचार हो गये हैं।
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।
जीवन के हाँसिये पर, घुट-घुट के जी रहे हैं,
माँ-बाप सहमे-सहमे, गम अपना पी रहे हैं,
कल तक जो पालते थे, अब भार हो गये हैं।
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।।
9 comments:
वर्तमान परिदृश्य का चित्रण और समस्या को इस गीत में आपने बहुत ही सुन्दरता के साथ रचा है । बेहतरीन रचना के लिए बधाई आपको । हिन्दी साहित्य मंच के द्वारा आपका प्रयास सराहनीय है । बहुत बहुत बधाई ।
शास्त्री जी।
सम्बन्धों को लेकर
आपकी कविता बहुत सुन्दर है।
वर्तमान परिदृश्यों का
सजीव चित्रण किया है आपने।
बधाई।
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।
अनुबन्ध आज सारे, बाजार हो गये हैं।।
kitani ytharthwaadi kavita hai. sambandhon ka sacha swaroop prstut kiya apne.
khali panne
bahut sundar rachna badhai sir ji
गीत तो सुन्दर है पर नास्टैल्ज़िया कई बार प्रतिगामी भी होती है।
बेहतरीन कविता,
नये ब्लाग की प्रथम साहित्यिक रचना के लिये बधाई स्वीकार करें।
ना वो प्यार चाहता है ना दुलार चाहता हैवो जिन्दा बाप ापना अधिकार छाह्त है बिल्कुल सही कहा आपने रिश्तों मे गिरावट सच ही चिन्ता क विशय है सुन्देर रचना के लिये ब्धाई
shandar ..... bahut bahdiyaa rachanaa hai ....
नमस्कार महोदय,
मेरी आत्मा को यह कविता बहुत भायी. आपको कोटि-कोटि साधुवाद. ऐसा महसूस हुआ की आप संसारिकता के कटु यथार्थ से गहरे मर्माहत हैं. जो भी हो, आपकी कलम से निकली यह रचना निस्संदेह संसार को सरेआम आइना दिखाती है. जानते तो सभी हैं परन्तु जिस सुन्दरता से आपने इस यथार्थ को पिरोया है उसकी प्रशंसा
हेतु मेरे पास शब्द नहीं हैं.
राजूरंजन 'अरमान'
9211611937
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