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मंगलवार, 15 सितंबर 2009

मन गीला नहीं होता-----"नवनीत नीरव"


पुरस्कृत रचना ( प्रथम स्थान, हिन्दी साहित्य मंच द्वितीय कविता प्रतियोगिता)



(1)



कभी -कभी बीती बातें,


खट्टी मीठी गाँव की यादें,


मन को गीली कर जाती हैं।


जाने वह ,


कौन -सा पहर था,


जब शहर से,


नौकरी की चिट्ठी आई,


तुझसे क्या छुपाना ?


मेरा मन,


उड़ान भरने की कोशिश में था,


जैसे परकटा परिंदा,


पिंजरे से भाग जाना चाहता हो।


अपनों की बातों से,


सीना जो जला था मेरा,


जैसे अलाव में,


अधिक भुन गए हों कच्चे आलू,


रात आँखों में ही काट दी थी मैंने।


कुएं की जगत पर,


हाथ मुंह धोये थे,


आने के वक़्त ,


मुझे याद है ,


मेरी हाथों से छिटक कर,


जाने कितनी दूर तक,


लुढ़का था वह,


पीतल का लोटा,


मानों कह रहा हो,


तुम्हें तनिक भी परवाह नहीं हमारी।


तुलसी मैया ने,


अपनी छाँव की आँचल,


मेरे ऊपर ओढा दी थी,


जुग-जुग जीयो,


पर जल्दी आना,


आँखों के कोरों पर,


ठिठके हुए आंसू देखकर,


मैंने जल्दी से,


अपना सामान उठाया,


डर था ,


कहीं आंसुओं के बहाव में,


मैं भी बह जाऊं।


घर के दरवाजे पर लगे,


बेल के पेड़ से,


कुछ ज्यादा ही लगाव है,


अपने ही हाथों से,


रोपा था इसे मैंने


पत्तियां हवा के झोंकों संग,


बार बार यही कहती रहीं ,


अपना ख्याल रखना ,


जल्दी आना,


पर शायद मैंने,


सोच ही लिया था,


अब नहीं आऊंगा


()


सुरमई आकाश तले,


ताड़ ओर झरबेरियों वाली पगडण्डी पर ,


अपना सामान लिए ,


मैं चल पड़ा,


बचपन की यादों को निहारते ,


वही अमरुद बागान.......


वही पाठशाला ........


वही डाक्टर बाबू की क्लीनिक.....


और पुराना डाक बंगला......


जो मेरे मन की तरह जीर्ण-शीर्ण है


भागते टमटम की टापों के बीच ,


सारी बचपन की यादें ,


गुजर रही थीं ,


मानों ,



फिल्म चल रही हो,


रेलगाडी के आखिरी सीटी के साथ,


लगा,


मानों मेरा कलेजा,


मुंह को जायेगा।


धीरे-धीरे ट्रेन स्टेशन छोड़ रही थी,


मन शिथिल हो रहा था ,


वर्त्तमान और अतीत के बीच,


मैं झूल रहा था,


दरवाजे से खड़े होकर,


एक ही नजर में ,


आखिरी बार,


पूरे गाँव को निहार लेना चाहता था,


जो धीरे-धीरे,


रेल की पटरियों के बीच,


ओझल हो चला था


मन के सारे बांध,


मानों टूट गए हों ,


सारा चेहरा आंसुओं से,


भींग गया,


अब तो आँसू पोंछने वाला भी ,


कोई नहीं,


गुस्सा धीरे धीरे टूट रहा था,


और ,


मन गीला हो गया



()

आज कई साल बीत गए,


गाँव के दर्शन हुए ,




अकेलेपन से मेरी हालत है अजीब,



जैसे गाँव के बाहर हो पुरानी मस्जिद,


सोचता हूँ,


गाँव से रिश्ता कभी छूट नहीं पायेगा,


भले ही वह यादों का ही हो,


कुछ खास रिश्ता तो है हमारा,


वर्ना यूँ ही,


किसी के लिए,


मन गीला नहीं होता।


मन गीला नहीं होता।