नासमझ कुछ समझता है कभी-कभी
बादल क्यूँ बरसता है कहीं-कहीं
चाँद क्यूँ निकलता है कभी-कभी
ये बात मेरी समझ में तो आ जाएगी
वो क्यूँ नही समझता है कभी-कभी
रात मस्त हो क्यूँ चांदनी को बुलाती है
...दिन क्यों बदगुमाँ हो जाता है कभी-कभी
मैं समझाता ही नहीं उसको कुछ भी,
उस वक्त वो कुछ समझता है कभी-कभी
चाँद, चाँदनी की जगह पर बैठा है सदियों से,
सूरज ना चल कर भी, चलता है सदियों से
मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011
नासमझ समझता है {कविता} सूबे सिहं सुजान
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3 comments:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
बुत बहुत शुक्रिया , प्रवीम जी,,
मैं हिन्दी साहित्य मंच पर अपनी ग़ज़लें पोस्ट करना चाह रहा हूं
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