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शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

जिन्दगी : बस यूँ ही {कविता} सुमन ‘मीत’




   1

जिन्दगी की खुशियाँ
दामन में नहीं सिमटती
ऐ मौत ! आ
तुझे गले लगा लूँ...........


    2

जिन्दगी एक काम कर
मेरी कब्र पर
थोड़ा सकून रख दे
कि मर कर
जी लूँ ज़रा..........
   


  3

जिन्दगी दे दे मुझे
चन्द टूटे ख़्वाब
कुछ कड़वी यादें
कि जीने का
कुछ सामान कर लूँ........



                                                                            

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

प्रकाश पर्व दीपावली की शुभकामनाए!


विवेक आलोक विस्तृत हो जग में
छट जाए दुःख दरिद्रता का अंधकार
पग-पग सौहार्द के दीप जलाए
प्रेमालोक में डूब जाए संसार
उर की अभिलाषाए पूर्ण करें
दीपावली का यह शुभ त्यौहार.....
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"हिंदी साहित्य मंच" की ओर से आप सभी को प्रकाशपर्व की हार्दिक शुभकामनाए!

छवि गूगल से साभार....

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

[अंदाज़]............................ नज़्म

इश्क करने वाले जानते हैं , मजबूरी क्या चीज़ है ?
अपनों का दिल तोडना तो यारो बहुत आसान है ।

उड़ने वाले परिंदों को पता है , उचाई क्या चीज़ है ?
ज़मीन पर रेगना तो यारो बहुत आसान है ।

क़यामत तक जीने वालों को पता है , ज़िन्दगी क्या चीज़ है ?
पंखे से झूल कर मरना तो यारो बहुत आसान है ।

जो जीते है दुसरो के लिए उनसे पूछो , पुण्य क्या चीज़ है ?
गंगा नहा कर पाप धोना तो यारो बहुत आसन है ।

गर्दन पर सूली रख जो जीते हैं उनसे पूछो , मेहनत क्या चीज़ है ?
.....अमानत लूट कर ऐश करना तो यारो बहुत आसान है ।

बिंदास कवियों से पूछो यारो ..मौज क्या चीज़ है ??
..घंटो भर में कविता लिखना तो *यज्ञ* बहुत आसान है ।

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

नासमझ समझता है {कविता} सूबे सिहं सुजान

नासमझ कुछ समझता है कभी-कभी
बादल क्यूँ बरसता है कहीं-कहीं
चाँद क्यूँ निकलता है कभी-कभी
ये बात मेरी समझ में तो आ जाएगी
वो क्यूँ नही समझता है कभी-कभी
रात मस्त हो क्यूँ चांदनी को बुलाती है
...दिन क्यों बदगुमाँ हो जाता है कभी-कभी
मैं समझाता ही नहीं उसको कुछ भी,
उस वक्त वो कुछ समझता है कभी-कभी
चाँद, चाँदनी की जगह पर बैठा है सदियों से,
सूरज ना चल कर भी, चलता है सदियों से

शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

घर से बाहर {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"



ठिठक जाता है मन

मुश्किल और मजबूरीवश

निकालने पड़ते है कदम

घर से बाहर

ढेहरी से एक पैर बाहर निकालते ही

एक संशय, एक शंदेह

बैठ जाता है मन में

की आ पाउँगा वापस, घर या नहीं

जिस बस से आफिस जाता हूँ

कहीं उसपर बम हुआ तो.........

या रस्ते में किसी दंगे फसाद में भी.......

फिर वापस घर के अन्दर

कर लेता हूँ कदम

बेटी पूंछती है

पापा क्या हुआ ?

पत्नी कहती है आफिस नहीं जाना क्या ?

मन में शंदेह दबाए कहता हूँ

एक गिलाश पानी........

फिर नजर भर देखता हूँ

बीवी बच्चों को

जैसे कोई मर्णोंमुख

देखता है अपने परिजनों को

पानी पीकर निकलता हूँ

घर से बाहर

सोंचता हूँ

अब जीवन भी मर मर कर.......

पता नहीं कब कहाँ किसी आतंकवादी की गोली

या बम प्रतीक्षारत है ,

मेरे लिए !

फिर सोंचता हूँ मंत्रियों के विषय में तो,

एक घृणा सी होती है उनसे !

खुद की रक्षा के लिए बंदूकधारी लगाए है !

बुलेट प्रूफ कपडे और कार......

और हमारे लिए, पुलिश

जो हमेशा आती है देर से

मरने के बाद !

अब समझ में आता है की,

क्यों कोई नेता नहीं फंसता दंगो में

क्यों किसी आतंकवादी की गोली

नहीं छू पाती इन्हें !

हमारे वोट का सदुपयोग

बखूबी कर रहे है हमारे नेता !

अब तो खुद की परछाई पर भी

नहीं होता विशवास !

घर से निकलने का मन नहीं करता

लेकिन मजबूरी में निकालने पड़ते है कदम

घर से बाहर !



(प्रस्तुत कविता को वर्तमान स्थिति को देखता हुए, लिखा गया है ! इस कविता में एक आम आदमी के विचारों का चित्रण किया गया है ! )