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गुरुवार, 14 जुलाई 2011

अरिमान (कविता)-----विजय कुमार शर्मा

१. अरिमान - एक

जो बिछुर रहें जग की चाल से
उन्हें रफ़्तार पे ला दूँ मैं
जो मचा रहें हो भीम उछल कूंद
उन्हें शांति का पाठ पढ़ा दूँ मैं
जो बढ़ रहें हो सरहदों से आगे
उन्हें सरहदों में रहना सिखा दूँ मैं
मेरे जीवन का एक तुष्य ख्वाब
जग में रामराज बना दूँ मैं

न चले गोंलिया न बहे खून
न कहीं कोई कैसा मातम हो
हर दर पे उमरे बस खुशी
हर घर उन्नति का पालक हो
चहचहाता आंगन हो सबका
हर कोई समृधि श्रष्टि का चालक हो
मेरे जीवन की एक बिसरी कल्पना
हो एक देव जो दैत्यों का घालक हो

२. अरिमान - दो

आये मेरे में इतना सामर्थ
बंजर में भी फसल उगा दूँ मैं
जो मुरझा रहे पंचतत्वो के वाहक
उन्हें अजेय झुझारू बना दूँ मैं
जो दहक रहा हो किसी का अन्तःपुर
उसे अतुल्य जल पिला दूँ मैं
जो उठी हो पावक किसी में डंसने की
अपने को ही जिला दूँ मैं

हो अगर देवयोग अभागिन बनाने का
जग से पूरा विश्वाश मिले
हर राहें अंशुओं की बंद मिले
हर राह पे नयी आस मिले
मिट जाये वैर शब्द शब्दकोश से
प्रेम का चहुदिशी उचास मिले
मेरी माटी के हर गावं में
अमावश्या में भी प्रकाश मिले

३. अरिमान - तीन

मैं चाह नहीं नरेश बनना
मेरी चाह नहीं धरा पे छा जाना
मेरी इक्षाएं है वेगानी मेरे से अब
जब कूटनीती से जीत पा जाना
मैं ठहर नहीं सकता जंजालो से
वाचाल बनू ना रहू सयाना
मैं भरका दू बस एक क्रांति
अरे नर तुने स्वमं को ना पहिचाना

हम एक है वसुंधरा के वासी
बस गूँज उढे अम्बर में ये नारा
एक धरम है एक जाति है
एक देश रंग संसार हमारा
लौट आये सेवा दया सदभाव
न युद्ध न जीत ना कोई हारा
मानुष पैंठ जाये उन हालात में
"आज़ाद" का ये अरिमान सारा
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