बुधवार, 27 जुलाई 2011
पर्दा प्रथा: विडंबना या कुछ और---------मिथिलेश दुबे
सोमवार, 25 जुलाई 2011
बेनूर चाँद {गजल} सन्तोष कुमार "प्यासा"
एक दर्द में फिर डूबी शमा, फिर चाँद हुआ बेनूर
बिखरा दिल, टीसती यादें तेरी भला क्यूँ हुए तुम दूर
करूँ वक़्त से शिकवा या फिर अफ़सोस अपनी किस्मत पर
तरसती "प्यास" में तडपूं हर पल, ऐसा चढ़ा उस साकी का सुरूर
ये कशिश है इश्क की या दीवानगी का कोई दिलकश सबब
तडपती जुदाई उसी को क्यूँ , जो होता प्यार में बेकसूर
हजारों तारों के साथ भी आसमां क्यूँ हुआ तनहा
जब बंद हो गईं आंखे चकोर की, चाँद भी हो गया बेनूर
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मन के अन्तरम में पता नहीं कैसी टीस कैसी बेचैनी उठी,
फिर न चाहते हुए/ न जानते हुए भी इन पंक्तियों को क्यूँ और कैसे
शब्दों में पिरोया मैंने, मै खुद नहीं समझ सका !
शनिवार, 23 जुलाई 2011
सांप्रदायिकता (कविता)----जयप्रकाश सिंह बंधु
सांप्रदायिकता!
धर्म,भाषा,रंग,देश...
न जाने कितनी ही बिंदुओं पर
तुम कटार उठाओगे
और दौड़ने लगोगे एकाएक
हांफते हुए-
कस्बा-कस्बा
शहर-शहर
गांव-गांव।
और यह भी
सब जानते हैं-
कि अपने चरित्रानुसार
रोती-बिलखती बुत बनी आत्माओं
खंडहरों के बीच छुप जाओगे
शायद तुम्हारे भीतर का आदमी
डरा होगा थोड़ी देर के लिए।
तब-
उन्हीं खंडहरों
काठ बनी आत्माओं के बीच से
निकल आएगा धीरे-धीरे
एक कस्बा
एक शहर
एक गांव....एक गांव...।
गुरुवार, 14 जुलाई 2011
अरिमान (कविता)-----विजय कुमार शर्मा
जो बिछुर रहें जग की चाल से
उन्हें रफ़्तार पे ला दूँ मैं
जो मचा रहें हो भीम उछल कूंद
उन्हें शांति का पाठ पढ़ा दूँ मैं
जो बढ़ रहें हो सरहदों से आगे
उन्हें सरहदों में रहना सिखा दूँ मैं
मेरे जीवन का एक तुष्य ख्वाब
जग में रामराज बना दूँ मैं
न चले गोंलिया न बहे खून
न कहीं कोई कैसा मातम हो
हर दर पे उमरे बस खुशी
हर घर उन्नति का पालक हो
चहचहाता आंगन हो सबका
हर कोई समृधि श्रष्टि का चालक हो
मेरे जीवन की एक बिसरी कल्पना
हो एक देव जो दैत्यों का घालक हो
२. अरिमान - दो
आये मेरे में इतना सामर्थ
बंजर में भी फसल उगा दूँ मैं
जो मुरझा रहे पंचतत्वो के वाहक
उन्हें अजेय झुझारू बना दूँ मैं
जो दहक रहा हो किसी का अन्तःपुर
उसे अतुल्य जल पिला दूँ मैं
जो उठी हो पावक किसी में डंसने की
अपने को ही जिला दूँ मैं
हो अगर देवयोग अभागिन बनाने का
जग से पूरा विश्वाश मिले
हर राहें अंशुओं की बंद मिले
हर राह पे नयी आस मिले
मिट जाये वैर शब्द शब्दकोश से
प्रेम का चहुदिशी उचास मिले
मेरी माटी के हर गावं में
अमावश्या में भी प्रकाश मिले
३. अरिमान - तीन
मैं चाह नहीं नरेश बनना
मेरी चाह नहीं धरा पे छा जाना
मेरी इक्षाएं है वेगानी मेरे से अब
जब कूटनीती से जीत पा जाना
मैं ठहर नहीं सकता जंजालो से
वाचाल बनू ना रहू सयाना
मैं भरका दू बस एक क्रांति
अरे नर तुने स्वमं को ना पहिचाना
हम एक है वसुंधरा के वासी
बस गूँज उढे अम्बर में ये नारा
एक धरम है एक जाति है
एक देश रंग संसार हमारा
लौट आये सेवा दया सदभाव
न युद्ध न जीत ना कोई हारा
मानुष पैंठ जाये उन हालात में
"आज़ाद" का ये अरिमान सारा
.............................
सोमवार, 11 जुलाई 2011
हिंगलिश दोहे...................श्यामल सुमन
GODOWN में GRAIN है, PEOPLE EMPTY पेट।।
JOURNEY हो जब TRAIN से, FEAR होता साथ।
होगा ACCIDENT कब, मिले DEATH से हाथ।।
इक LEADER SPEECH का, दूजा करे OPPOSE।
दिखती UNITY जहाँ, PAY से अधिक PRAPOSE।।
आज CORRUPTION के प्रति, कही न दिखती HATE।
जो भी हैं WANTED यहाँ, खुला MINISTER GATE।।
आँखों में TEAR नहीं, नहीं TIME पे RAIN।
सुमन की LIFE SAFE है, LOSS कहें या GAIN।।
शुक्रवार, 8 जुलाई 2011
मोहब्बत.............रमन कुमार अग्रवाल'रम्मन'
आशियाना देखता है
परिंदा क़ैद में है
आशियाना देखता है
वो बंद आँखों से
सपना सुहाना देखता है
तू ही समझ न सका अहमियत मोहब्बत
की
तेरे तरफ तो ये
सारा ज़माना देखता है
तू ही तबीब, तू ही रहनुमा तू
ही रहबर
तेरे करम
को तो सारा ज़माना देखता है
तू आशिकों का है आशिक़, ये शान है
तेरी
तेरी मिसाल तू खुद है
ज़माना देखता है
नवाज़ देना तू 'रम्मन'
को भी मोहब्बत से
दीवाना मिलने का तेरे
बहाना देखता है
रविवार, 3 जुलाई 2011
चवन्नी का अवसान : चवनिया मुस्कान--------श्यामल सुमन
सच तो ये है कि चवन्नी से परिचय बहुत पहले हुआ और"चवनिया मुस्कान" से बहुत बाद में। आज जब याद करता हूँ अपने बचपन को तो याद आती है वो खुशी, जब गाँव का मेला देखने के लिए घर में किसी बड़े के हाथ से एक चवन्नी हथेली पर रख दिया जाता था "ऐश" करने के लिए। सचमुच मन बहुत खुश होता था और चेहरे पर स्वाभाविक चवनिया मुस्कान आ जाती थी। हालाकि बाद में चवनिया मुस्कान का मतलब भी समझा। मैं क्या पूरे समाज ने समझा। मगर उस एक दो चवन्नी का स्वामी बनते ही जो खुशी और "बादशाहत" महसूस होती थी, वो तो आज हजारों पाकर भी नहीं महसूस कर पाता हूँ।
15 अगस्त 1950 से भारत में सिक्कों का चलन शुरू हुआ। उन दिनों "आना" का चलन था आम जीवन में। आना अर्थात छः पैसा और सोलह आने का एक रूपया। फिर बाजार और आम आदमी की सुविधा के लिए 1957 में दशमलव प्रणाली को अपनाया गया यानि रूपये को पैसा में बदल कर। अर्थात एक रूपया बराबर 100 पैसा और 25 पैसा का सिक्का चवन्नी के नाम से मशहूर हो गया।
भले ही 1957 में यह बदलाव हुआ हो लेकिन व्यवहार में बहुत बर्षों बाद तक हमलोग आना और पैसा का मेल कराते रहते थे। यदि 6 पैसे का एक आना और 16 आने का एक रूपया तो उस हिसाब से एक रुपया में तो 16x6 = 96 पैसे ही होना चाहिए। लेकिन उसको पूरा करने के लिए हमलोगों को समझाया जाता था कि हर तीन आने पर एक पैसा अधिक जोड़ देने से आना पूरा होगा। मसलन 3 आना = 3x6+1=19 पैसा। इस हिसाब से चार आना 25 पैसे का, जो चवन्नी के नाम से मशहूर हुआ। फिर इसी क्रम से 7 आने पर एक पैसा और अधिक जोड़कर यानि 7x6+2 = 44 पैसा, इसलिए आठ आना = 50 पैसा, जो अठन्नी के नाम से आज भी मशहूर है और अपने अवसान के इन्तजार में है। उसके बाद 11 आने पर 3 पैसा और 14 आने पर 4 पैसा जोड़कर 1 रुपया = 16x6+4 = 100 पैसे का हिसाब आम जन जीवन में खूब प्रचलित था 1957 के बहुत बर्षों बाद तक भी।
हलाँकि आज के बाद चवन्नी की बात इतिहास की बात होगी लेकिन चवन्नी का अपना एक गौरवमय इतिहास रहा है। समाज में चवन्नी को लेकर कई मुहाबरे बने, कई गीतों में इसके इस्तेमाल हुए। चवन्नी की इतनी कीमत थी कि एक दो चवन्नी मिलते ही खुद का अन्दाज "रईसाना" हो जाता था गाँव के मेलों में। लगता है उन्हीं दिनों मे किसी की कीमती मुस्कान के लिए"चवनिया मुस्कान" मुहाबरा चलन में आया होगा। चवन्नी का उन दिनों इतना मोल था कि "राजा भी चवन्नी ऊछाल कर ही दिल माँगा करते थे"। यह गीत बहुत मशहूर हुआ आम जन जीवन में जो 1977 में बनी फिल्म "खून पसीना" का गीत है।
"मँहगाई डायन" तो बहुत कुछ खाये जात है। मँहगाई बढ़ती गयी और छोटे सिक्के का चलन बन्द होता गया। 1970 में 1,2और 3 पैसे के सिक्के का चलन बन्द हो गया और धीरे धीरे चवन्नी का मोल भी घटता गया। चवन्नी का मोल घटते ही "चवन्नी छाप व्यापारी", "चवन्नी छाप डाक्टर" आदि मुहाबरे चलन में आये जो क्रमशः छोटे छोटे व्यापारी और आर०एम०पी० डाक्टरों के लिए प्रयुक्त होने लगा।
और आज चवन्नी का इतना मोल घट गया "मंहगाई डायन" के कारण कि आज उसका का अतिम संस्कार है। चवन्नी ने मुद्रा विनिमय के साथ साथ समाज से बहुत ही रागात्मक सम्बन्ध बनाये रखा बहुत दिनों तक। अतः मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है चवन्नी को उसके इस शानदार अवसान पर।
शनिवार, 2 जुलाई 2011
सरकार भी संसद से ऊपर नहीं - शम्भु चौधरी
इस लेख को पढ़ने से पहले हम इस बात पर बहस शुरु करें कि हमें बात किस विषय पर करनी है? हमारी बातों का मुख्य मुद्दा क्या है? भ्रष्टाचार है कि सांप्रदायिकता।
सरकार जो जन लोकपाल बिल संसद के सदन में रखने जा रही है उसमें किन-किन बातों का उल्लेख सरकार करना चाहती है और कौन से मुद्दे को वो अलोकतांत्रिक मानती है? और किसे लोकतांत्रिक।
सरकार के जो बयान हमें पढ़ने और सुनने को मिल रहें हैं वे न सिर्फ तानाशाही बयान है बल्कि भ्रष्टाचार के मुद्दे की उन सभी बातों को सांप्रदायिकता के साथ जोड़ मुसलमानों के एक वर्ग को इस आन्दोलन से अलग-थलग रखना चाहती है। कांग्रेस एक तरफ असम का उदाहरण देती है तो दूसरी तरफ तामिलनाडू के चुनाव परिणामों को बताना भूल जाती है। एक तरफ देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दर्शाती है तो दूसरी तरफ अपंग जन लोकपाल बिल की वकालत करती है। एक तरफ विधेयक के प्रारूप पर चर्चा करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुला रही है तो दूसरी तरफ सिविल सोसाइटी के सदस्यों को सांप्रदाकिता से जोड़ कर देश को गुमराह करना चाहती है। भला हो भी क्यों नहीं? पिछले 30 सालों में देश के अन्दर धर्मनिपेक्षता के मायने काफी बदल गये। देश में बुद्धिजीवियों की एक बहुत बड़ी जमात पैदा हो गई जो देश को सांप्रदायिक ताकतों से बचाकर रखना चाहती है। ये वही है जो एक समय देश को गांधी परिवार से बचा कर रखना चाहती थी। सरकार चाहती है कि वे अपनी सभी बातों को सांप्रदायिकता की आड़ लेकर मना लें। भला हो भी क्यों नहीं हम जब अन्ना को तानाशाह के रूप में स्वीकार कर सकतें हैं तो सरकार के सभी बातों को जायज क्यों नहीं मान सकते। सिविल सोसाइटी के सदस्य क्या चाहतें हैं और इनके द्वारा सूझाये गये सुझावों को कौन संसद में कानून की मान्यता देगा? जब मान्यता देने वाले ही वे लोग है जो खुद को चुने हुए देश के प्रतिनिधि मानते हैं तो उनको इतना भय किस बात का हो गया कि वे 16 अगस्त के अनशन को संसद को चुनौती मान रहे हैं? जब सरकार अपने सूझाये गये बिल पर इतनी ईमानदार है तो बजाय बिल में सूझाये गये अपने पक्ष को मजबूती से रखने के समाज सदस्यों पर बयानबाजी करने की क्या जरूरत पड़ गई? जब सरकार खुद ही मानती है कि संसद से ऊपर कोई नहीं, तो इसमें यह भी जोड़ दें कि सरकार भी संसद से ऊपर नहीं है। जन लोकपाल का विधेयक संसद में सरकार लायेगी और गलत विधेयक का संसद के बाहर विरोध करना और उसके विरोध में जनता के बीच अपनी बातों को पंहुचाना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। परन्तु सरकार शब्दों के प्रयोग से देश को भ्रमित करने का प्रयास कर रही है। माना कि भारत की अदालतें शब्दों के बाजीगर को महत्व देती है पर यहाँ अदालत में बहस नहीं देश की संसद के भीतर सांसदगण अपना पक्ष रखेगें। देश की जनता से जुड़े कई सवाल इस लोकपाल बिल से जुड़ चुकें हैं। आज सत्तापक्ष के 4-5 मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हवा खा रहें हैं ऐसे में जनता एक सीधा सा सवाल जानना चाहती है कि जिस भ्रष्टाचार की बात देश की जनता करना चाह रही है, क्या सरकार द्वारा सुझाये गये लोकपाल विधेयक में उसी बातों को उल्लेख है? यदि हाँ! तो सरकार साफ तौर पर उसका जिक्र करें न कि कभी सांप्रदायिकाता की आड़ लें तो कभी संसद की आड़ लेकर देश को गुमराह करने का काम करें।