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रविवार, 2 मई 2010

बचपन

आनंद की लहरों में हिलोरें खाने वाला जीवन
मानव का प्राकृतिक से होता है पहला मिलन
ना गृहस्थी का भार ना जमाने का फिक्र ,
ना खाने कमाने का फिक्र
निश्चिन्तता के आँगन में विचरता है बचपन
प्राकृतिक की गोद में बैठता जब वोह शुकुमार
पड़ी रहती कदमों में उसकी खुशियाँ अपार
होता है वह अपने बचपन का विक्रम
दूर रहतें है उससे ज़माने के सारे भ्रम
न देता वह ख़ुद को कभी झूठी दिलाशा
ना रहता कभी वह किसी चाहत और खुशी का "प्यासा"