मुझमें न ढूंढ मुझे
राख के ढेर में अब
कोई चिनगारी नही
उम्र भर
इक चिता जलती रही
लकडियाँ कम पड़ गयीं
तो अरमान सुलगते रहे
जब कुछ न बचा
तो राख बन गई
बरसों से पड़ी है ये
कोई इसे भी उठाने न आया
अब तो इस राख पर भी
वक्त की धूल जम गई है
इसे हटाने में तो
जन्मों बीत जायेंगे
फिर बताओ
कहाँ से ,कैसे
मुझे मुझमें पाओगे
शनिवार, 4 दिसंबर 2010
राख़ का ढेर -----{वंदना गुप्ता}
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7 comments:
बहुत ही उम्दा रचना ।
Sach behatareen baat
बहुत भावपूर्ण रचना
अब तो इस राख पर भी
वक्त की धूल जम गई है
इसे हटाने में तो
जन्मों बीत जायेंगे
बहुत सही कहा ...नियति भी यही है ...शुक्रिया
्मेरी कविता को जगह देने के लिये आभारी हूँ।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
--
वन्दना जी!
यह रचना मैंने आपके ब्लॉग पर भी पढ़ी है!
भावपूर्ण सुन्दर अभिव्यक्ति!
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