सामाजिक सरोकारों का संरक्षण आवश्यक है
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
================
समाज की व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालन के लिए इंसान ने परम्पराओं, मूल्यों, सरोकारों की स्थापना की। समय के सापेक्ष चलती व्यवस्था ने अपने संचालन की दृष्टि से समय-समय पर इनमें बदलाव भी स्वीकार किये। पारिवारिक दृष्टि से, सामाजिक दृष्टि से, आर्थिक दृष्टि से पूर्वकाल से अद्यतन सामाजिक व्यवस्थाएँ बनती बिगड़तीं रहीं। जीवन के सुव्यवस्थित क्रम में मूल्यों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। मानव विकास का ऐतिहासिक दृश्यावलोकन करें तो ज्ञात होगा कि अकेले-अकेले रहते आ रहे मानव को किसी न किसी रूप में परिवार की, एक समूह की आवश्यकता महसूस हुई होगी। इसी आवश्यकता ने परिवार जैसी संस्था का विकास किया।डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
================
मानव की आवश्यकताएँ हमेशा से अनन्त रहीं हैं। इन आवश्यकताओं में कुछ आवश्यकताओं को मूलभूत आवश्यकताओं के रूप में देखा जा सकता है तो कुछ आवश्यकताएँ स्वयं मानव जनित हैं। मूलभूत आवश्यकताओं के रूप में इंसान ने जो कुछ पाया, जो कुछ खोजा उसी को व्यवस्थित रूप देने के लिए ही एक व्यापक व्यवस्था बनाई गई। इसी व्यवस्था को किसी ने परम्परा का नाम दिया तो किसी ने इसे सरोकारों का नाम दिया।
देखा जाये तो सरोकारों का उपयोग आजकल हम किसी न किसी काम में करके देखते हैं। कभी शिक्षा के सामाजिक सरोकारों की बात होती है तो कभी मीडिया के सामाजिक सरोकारों की चर्चा होती है। किसी के द्वारा राजनीति के सामाजिक सरोकारों को खोजा जाता है तो कभी इंसान के सामाजिक सरोकारों के लिए बहस शुरू की जाती है। सवाल यह उठता है कि सामाजिक सरोकार क्या समय के साथ परिवर्तित होते रहते हैं अथवा प्रत्येक कालखण्ड में सामाजिक सरोकार अपरिवर्तित रहते हैं?
सामाजिक सरोकारों में समय-समय पर इंसान की सुविधानुसार परिवर्तन होते रहे हैं। कभी व्यक्ति ने परिवार के हिसाब से सामाजिक सरोकारों का निर्माण किया तो कभी उसने अपने कार्य की प्रकृति के अनुसार सरोकारों को देखा। सामाजिक सरोकार के नाम पर इंसान ने सदा अपनी सुविधा को ही तलाशन का प्रयास किया है। पारिवारिक संदर्भों में यदि हम देखें तो पायेंगे कि इंसान ने जब परिवार की अवधारणा का विकास किया होगा तो उस समय उसने संयुक्त परिवार के चलन को वरीयता दी थी। कबीलाई संस्कृति कहीं न कहीं संयुक्त जीवनशैली का ही उदाहरण कही जा सकती है। इस संस्कृति के बाद ही परिवारों का एक साथ रहना सामाजिक सरोकारों में शुमार किया गया। समय बदला और समय के साथ-साथ इंसान की आवश्यकताओं ने भी अपना रूप बदल लिया। संयुक्त परिवार को प्राथमिक मानने वाला इंसान अपनी जरूरत के अनुसार एकल परिवारों में सिमट गया।
एकल परिवारों का चलन धीरे-धीरे नाभिकीय परिवारों के रूप में आज दिखाई दे रहा है। स्त्री हो या पुरुष अब वह अकेले ही रहने में विश्वास करने लगा है। परिवार को लेकर निर्धारित किये गये सरोकार आज बदलते और सहज स्वीकार्य दिखाई दे रहे हैं। परिवारों में एकल की धारणा के साथ-साथ पति-पत्नी के प्रति आपसी सम्बन्धों के ताने-बाने ने भी परिवर्तन किया है।
स्त्री-पुरुष के आपसी सम्बन्धों से इतर पति-पत्नी के आपसी सम्बन्धों में भी क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। अब पत्नी हो या पति उसे विवाहोपरान्त शारीरिक सम्बन्धों को बनाने और उनको स्वीकारने में किसी तरह की झिझक नहीं दिखाई दे रही है। विवाहोपरान्त शारीरिक सम्बन्धों की सहज स्वीकारोक्ति और उसके बाद तलाक के रूप में अंतिम परिणति को स्त्री और पुरुष दोनों ही सहज भाव से स्वीकार रहे हैं।
ऊपर दिया गया परिवार का उदाहरण तो एक बानगी भर है यह समझाने के लिए कि हम किस तरह से सरोकारों को मिटाते हुए अपनी एक गैर-आधार वाली व्यवस्था का निर्माण करते चले जा रहे हैं। यह आवश्यक नहीं कि हम सरोकारों के नाम पर सिर्फ और सिर्फ पुरानी मान्यताओं को ढोते रहें किन्तु यह तो और भी अनावश्यक समझ में आता है कि मात्र स्वार्थपूर्ति के लिए सरोकारों में तोड़मरोड़ करने लगना। समाज की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए ही सामाजिक सरोकारों का निर्माण किया गया था। समाज के ढाँचे में व्यक्ति ने अपने आपको स्थापित करने के लिए इन सरोकारों को सहज रूप में स्वीकार भी किया था।
किसी भी क्षेत्र में देखें तो हमें सामाजिक सरोकारों का क्षरण भली-भाँति दिखाई देता है। इस क्षरण के पीछे मनूष्य की असीमित रूप से कुछ भी पा लेने की लालसा दिखाई देती है। राजनीति हो अथवा मीडिया, शिक्षा हो अथवा व्यवसाय, धर्म हो अथवा कोई अन्य कार्य सभी में सरोकारों का विघटन आसानी से दिखाई देने लगा है। इस विघटन को आसानी से अस्वीकारने का काम भी चल रहा है। किसी को भी मूल्यों के ध्वस्त होने के बार में समझाया जाये, सरोकारों के विघटन के बारे में बताया जाये तो वह इसे सहज रूप में नहीं ले पा रहा है। आधुनिकता, औद्योगीकरण, वैश्वीकरण आदि जैसे भारीभरकम नामों के बीच मूल बिन्दू को तिरोहित कर दिया जाता है।
हम स्वयं आकलन करें कि परिवार के, समाज के सरोकारों को तोड़कर हम किस प्रकार के समाज का निर्माण अथवा संचालन करना चाहते हैं? रिश्तों के नाम की, मर्यादा की आहुति देकर किसी के साथ भी शारीरिकता को स्वीकार करके हम किस प्रकार के खुले समाज को स्वीकार कर रहे हैं? शिक्षा के नाम पर नित नये प्रयोग हमें किस दिशा में ले जा रहे हैं? नैतिक शिक्षा को मजाक समझकर उसको हाशिये पर खड़ा करने वाले अनैतिक समाज के निर्माण से क्या चाहते हैं? मूल्य विहीन राजनीति के द्वारा हम कौन से सरोकारों का प्रदर्शन कर रहे हैं? दिन प्रति दिन लोकतन्त्र की होती समाप्ति और अघोषित रूप से निर्मित होते जा रही राजशाही के द्वारा राजनीति में किन सरोकारों की स्थापना का संकल्प ले रखा है?
ये मात्र सवाल नहीं हैं, कुछ ज्वलन्त स्थितियाँ हैं जो नित हमें पतन की ओर ले जा रहीं हैं। एक छोटी सी बानगी ये है कि प्रत्येक कार्य में किसी न किसी रूप में नारी शरीर का उपयोग किया जाने लगा है। नारी तन के कपड़े कम से कमतर होते-होते समाप्ति की ओर चले जा रहे हैं। पुरुष की विकृत मानसिकता दिन प्रति दिन और विकृत होती जा रही है। कन्याओं का कोख में ही दम तोड़ते जाना अपनी अलग कहानी कह रहा है। बहुत कुछ है जो सरोकारों के नाम पर कुछ और ही परोस रहा है। चिन्तन का समय जा चुका है। एक कदम उठाना होगा जो समय सापेक्ष स्थिति का आकलन कर सामाजिक सरोकारों का सही-सही निर्धारण कर सके।
2 comments:
हम स्वयं आकलन करें कि समाज के सरोकारों को तोड़कर हम किस प्रकार के समाज का निर्माण करना चाहते हैं?
सामाजिक सरोकारों से प्रत्येक व्यक्ति एक ईकाई की तरह प्रतिबद्ध है ..मगर सामूहिक रूप में यह अत्याचार का रूप ले लेता है ..किसी भी सभ्यता से जो अच्छा हो वही ग्रहण करें ...वो पूर्वी हो या पाश्चात्य ...परंपरा के नाम पर सड़े गले पाखंडों को ना अपनाये तो वही विचारों और वस्त्रों की नग्नता को भी ना कहें ...
साइड बार में साक्षात्कार शब्द गलत लिखा गया है ...!
एक टिप्पणी भेजें