भारी बोझल आँखें अधखुली खिड़की से झांकती हैं..........
बंद हो जाती है पलकें खुद ब खुद...
बंद आँखें होते हुए भी मैं पहुच जाता हूँ बालकनी तक
उठाता हूँ अखबार का बण्डल
अलसाये बदन में हवा का झोंका सनसनी पैदा करता है
मैं बेमन खोलता हूँ समाज के दर्पण को
दौडाता हूँ सरासर पूरे पन्ने पर नज़र
पढता हूँ नाबालिग लड़की से दुराचार की खबर
दहेज़ के लिए विवाहिता के जलाने का समाचार
फिर दुखी मन बढ़ जाता हूँ अगले पन्ने पर
जाती हैं नज़र क़र्ज़ से डूबे किसानो को आत्महत्या पर
और
राजनेता के द्वारा किये घोटाले पर
सोचता हूँ की काश न होता ये पन्नों का पुलिंदा
और
न आती आँखों के सामने ये ख़बरें
जिसको पढ़कर मेरा मन विचलित होता है
आखिर देश के विकास ये लोग कहाँ और कैसे पीछे रह गये ?
क्यूँ नहीं देता कोई इन पर ध्यान ?
इन्ही विचारों से परेशान होता हूँ
रोज ही मैं ..............
3 comments:
भावपूर्ण रचना बढ़िया लगी ...
देश का विकास सिर्फ़ शेयर मार्केट से तय हो रहा है ,हकीकत की किसे पड़ी है ।
यथार्थपरक रचना ।
कविता नही .... ये जीवन की सच्चाई है ...पता नही यह सब कब सुचारु रुप से चल पाएगा ... या ऐसे ही हर सुबह मन को विचलित करता रहेगा ...
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