दी मैनें दस्तक जब इस जहाँ में
कई ख्वाइशें पलती थी मन के गावं में
सोचा था कुछ करके जाऊंगी
जहाँ को कुछ बनकर दिखलाऊंगी
बचपन बदला जवानी ने ली अंगड़ाई
जिन्दगी ने तब अपनी तस्वीर दिखाई
मन पर पड़ने लगी अब बेड़ियां
रिश्तों में होने लगी अठखेलियां
जुड़ गए कुछ नव बन्धन
मन करता रहा स्पन्दन
बनी पत्नि बहू और माँ
अर्पित कर दिया अपना जहाँ
भूली अपने अस्तित्व की चाह
कर्तव्य की पकड़ ली राह
रिश्तों की ये भूल भूलैया
बनती रही सबकी खेवैया
फिसलता रहा वक्त का पैमाना
न रुका कोई चलता रहा जमाना
चलती रही जिन्दगी नए पग
पकने लगी स्याही केशों की अब
हर रिश्ते में आ गई है दूरी
जीना बन गया है मजबूरी
भूले बच्चे भूल गई दुनियां
अब मैं हूँ और मन की गलियां
काश मैनें खुद से भी रिश्ता निभाया होता
रिश्तों संग अपना ‘अस्तित्व’ भी बचाया होता.................
शनिवार, 12 जून 2010
अस्तित्व....................(कविता)...................... सुमन 'मीत'
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10 comments:
खूबसूरत अभिव्यक्ति
बेहतरीन ……उम्दा प्रस्तुति……………स्त्री जीवन का सम्पूर्ण चित्रण ।
'रिश्तों संग अपना ‘अस्तित्व’ भी बचाया होता...'
रिश्तों के संग अक्सर अस्तित्व खो जाता है पर ध्यान से देखें तो खोये नहीं हैं पर कहीं दुबके पड़े होते हैं.
शानदार रचना
bahut sundar rachna
अब मैं हूँ और मन की गलियां
काश मैनें खुद से भी रिश्ता निभाया होता
रिश्तों संग अपना ‘अस्तित्व’ भी बचाया होता.................
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!
jiwan ka saraansh dhaal diya kuchh hi shabdo me
bhaavpoorn rachna jise har nari jeeti hai.
आप सभी को रचना पसन्द आई इसके लिये धन्यवाद
bahut sundar abhivyakti.
काश मैनें खुद से भी रिश्ता निभाया होता
रिश्तों संग अपना ‘अस्तित्व’ भी बचाया होता.................
bahut khub ........rishton par sundar rachna
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