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शनिवार, 5 जून 2010

मनुष्य प्रकृति और समय {विश्व पर्यावरण दिवस पर एक चिंतन} सन्तोष कुमार "प्यासा"

हर क्षण हर पल इस स्रष्टि में कुछ न कुछ होता रहता है ! "समय" इक पल भी नहीं ठहरता ! समय का चक्र निरंतर घूमता रहता है ! जब मै इस लेख को लिख रहा हूँ, मुझे मै और मेरे विचार ही दिख रहे है ! ऐसा प्रतीत होता है, जैसे की कुछ हो ही नहीं रहा ! हवा शांत है ! सरसों के पीले खेत इस भांति सीधे खड़े है, जैसे किसी ने उन्हें ऐसा करने का आदेश दिया हो ! चिड़ियों की चहचहाहट, प्रात: कालीन समय और ओस की बूंदे, बहुत भली लग रहीं हैं ! सूर्य खुद को बादलों के बीच इस भांति छुपा रहा है, जैसे कोई लज्जावान स्त्री पर पुरुष को देख कर अपना मुंह आँचल में छुपा लेती है ! कोहरे को देख कर, बादलों के प्रथ्वी पर उतर आने का भ्रम हो रहा है ! दिग दिगंत तक शांति और सन्नाटा फैला हुआ है ! एक ऐसा दुर्लभ अनुभव हो रहा है, की अब मेरे विचार और मेरी कलम के सिवा कुछ है ही नहीं ! मानो समय थम सा गया हो! लगता है समय ने अपना नियम तोड़ दिया है ! किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है ! अभी भी स्रष्टि में कहीं न कहीं कुछ न कुछ हो रहा है ! समय अपने नियम पर अटल है ! इस समय जब आप मेरे लेख को पढ़ रहें हैं, उसी क्षण इस प्रथ्वी पर कहीं न कहीं कुछ न कुछ हो रहा है ! किसी के यहाँ खुशियाँ तो किसी के घर पर किसी के म्रत्यु का शोक मनाया जा रहा है ! कोई बीमारी से पीड़ित है, तो किसी को रोग से मुक्ति मिली है ! समय अपना कार्य कर रहा है ! प्रकृति का यह नियम अटूट है ! मनुष्य और प्रकृति का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है ! "मनुष्य की उत्त्पति प्रकृति की सहायता के लिए तथा प्रकृति का निर्माण मनुष्य की सहायता के लिए हुआ है" ! मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे के पूरक हैं ! कहा जाता है की मनुष्य अपने लाभ के लिए कुछ भी कर सकता है, हुआ भी वही ! अपने लाभ हेतु मनुष्य प्रकृति के प्रति अपना कर्तब्य भूल गया ! उसने पेड़ काटने शुरू कर दिए ! मनुष्य ने बड़े बड़े वनों को काट डाला ! उसने पर्वतों को भी नहीं छोड़ा ! कई पहाड़ों को बेध डाला ! मनुष्य ने प्रकृति के साथ विशवास घात किया ! जिससे प्रकृति को बहुत कष्ट हुआ ! वनों में रहने वाले जीव जंतु इधर उधर भटकने लगे, उनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया ! कई दुर्लभ जीव जंतु और वनस्पतियों का अस्तित्व ही मिट गया ! इससे प्रक्रति बहुत क्रोधित हो गई ! उसने भी मनुष्य के प्रति अपने कर्तब्य को भुला दिया ! पर्यावरण असंतुलित हो रहा है ! वर्षा का कोई ठिकाना नहीं ! कभी सूखा तो कभी बाढ़, तो कभी लहलहाते फसलों पर ओलों का आक्रमण पता नहीं क्या होने वाला है ! पर्वतों के क्षरण से प्रथ्वी असंतुलित हो गई ! फलस्वरूप भूकंप आने लगे ! वनों के कटने से हवा मानसून को एक जगह टिकने नहीं देती ! ठंडी गर्मी और बरसात का कोई नियम ही नहीं रहा ! गर्मी बढ़ रही है, ओजोन परत का छिद्र दिन ब दिन बढ़ रहा है ! प्रदुषण से वातावरण ग्रसित हो गई है !

हवा विषैली हो गई है ! पानी भी पीने योग्य नहीं रहा ! मृदा में भी मनुष्य ने ज़हर घोल दिया है ! प्रतीत होता है की "क़यामत" की शाम नजदीक है !
लेकिन मनुष्य अभी भी नहीं चेता, उसके लोभ ने उसे अँधा कर रखा है ! वनों की कटाई अभी भी जारी है ! बड़े-बड़े कारखानों से निकलने वाला धुंवा लगातार हवा को विषैला बना रहा है ! कारखानों का केमिकल मिला पानी नदियों के जल को जहरीला बना रहा है ! आखिर क्या होगा ! तरह तरह के राशायानिक खादों का प्रयोग करके मृदा को दूषित किया जा रहा है, जिससे मिटटी की उर्वरा शक्ति दिन ब दिन कम होती जा रही है, जो की फसलों के उत्पादन में कमी का कारण है ! फलस्वरूप महंगाई बढ़ रही है, जिसके परिणाम स्वरूप भ्रस्टाचार और मानवीय हिंसा बढ़ रही है !
एक समय था जब हर तरफ हरियाली ही हरियाली और शुद्ध हवा थी, नदियों का पीने योग्य था, और आज बिलकुल विपरीत है ! "मनुष्य" "प्रकृति" और "समय" ! मनुष्य और प्रकृति के इस लड़ाई का साक्षी "समय" है ! समय अपना कार्य कर रहा है ! इस लड़ाई से "समय" का तो कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, किन्तु "मनुष्य" और "प्रक्रति" का पति नहीं क्या होगा ! "समय" ने ऐसी कई घटनाओं को देखा और इतिहास के पन्नो में दफ्न किया है ! "समय" अपना कार्य कर रहा है ! "समय" का चक्र चल रहा है, और सदा चलता रहेगा !

2 comments:

मनोज कुमार ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे 06.06.10 की चर्चा मंच (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
http://charchamanch.blogspot.com/

अरुणेश मिश्र ने कहा…

इस लेख के प्रचार की आवश्यकता है ।
प्रशंसनीय ।