अकसर देखा करती हूँ
शाम ढलते-2
पंछियों का झुंड
सिमट आता है
एक नपे तुले क्षितिज में
उड़ते हैं जो
दिनभर
खुले आसमां में
अपनी अलबेली उड़ान
पर....
शाम की इस बेला में
साथी का सानिध्य
पंखों की चंचलता
उनकी स्वर लहरी
प्रतीत होती
एक पर्व सी
उनके चुहलपन से बनती
कुछ आकृतियां
और
दिखने लगता
मनभावन चलचित्र
फिर शनै: शनै:
ढल जाता
शाम का यौवन
उभर आते हैं
खाली गगन में
कुछ काले डोरे
छिप जाते पंछी
रात के आगोश में
उनकी मद्धम सी ध्वनि
कर्ण को स्पर्श करती
निकल जाती है
दूर कहीं..................!!
गुरुवार, 20 मई 2010
ढलती शाम..............(कविता).......... सुमन 'मीत'
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7 comments:
कविता बहुत ही सुन्दर लगी ...सरल शब्द में सजीव चित्रण प्रस्तुत करती है ...आभार
bahut khub suman ji ....kavita ka pravah aur prabhav aakarshak laga ..badahi
sundar rachna ....prakrti ka sundar citran ..dhanyavaad
bahut khub ..kavita padh kar sab aankhon ke saamne aa kgya ..badhai
बहुत खूबसूरत रचना...
ek komal aur sukhad kavita...
आप सभी को मेरी रचना पसन्द आई इसके लिये धन्यवाद ।आपके विचार शब्दों के रूप में निकल कर दूसरे के मन तक पहुंच जाएं तो एक सुखद एहसास दे जाते हैं ........
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