बात घर की मिटाने की करते हैं
तो हजारों ख़यालात जेहन में आते हैं
बेहिसाब तरकीबें रह - रहकर आती हैं
अनगिनत तरीके बार - बार सिर उठाते हैं ।
घर जिस चिराग से जलना हो तो
लौ उसकी हवाओं मैं भी लपलपाती है
ना तो तेल ही दीपक का कम होता है
ना ही तेज़ी से छोटी होती बाती है ।
अगर बात जब एक घर बसाने की हो तो
बमुश्किल एक - आध ख्याल उभर के आता है
तमाम रात सोचकर बहुत मशक्कत के बाद
एक कच्चा सा तरीका कोई निकल के आता है ।
वो चिराग जिससे रोशन घरोंदा होना है
शुष्क हवाओं में भी लगे की लौ अब बुझा
बाती भी तेज़ बले , तेल भी खूब पिए दीया
रौशनी भी मद्धम -मद्धम और कम रौनक शुआ ।
आज फ़िर से वही सवाल सदियों पुराना है
हालत क्यों बदल जाते है मकसद बदलते ही
फितरतें क्यों बदल जाती है चिरागों की अक्सर
घर की देहरी पर और घर के भीतर जलते ही ।
बुधवार, 12 मई 2010
नज़्म ....कवि दीपक शर्मा
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8 comments:
घर जिस चिराग से जलना हो तो
लौ उसकी हवाओं मैं भी लपलपाती है
ना तो तेल ही दीपक का कम होता है
ना ही तेज़ी से छोटी होती बाती है ।
bahut khub deepak sir
बात घर की मिटाने की करते हैं
तो हजारों ख़यालात जेहन में आते हैं
बेहिसाब तरकीबें रह - रहकर आती हैं
अनगिनत तरीके बार - बार सिर उठाते हैं ।
wah wah ...tariph-ye-kabil
बहुत हि शानदार पस्तुति दीपक जी , चार चान्द् लग दिये आपने नज़्म पेश करके ।।।शुक्रिया
उम्दा प्रस्तुती विचारणीय कविता /
umda lihka hai
aapko badhai
ek shabd ..lajawaab
wah wah bahut khub
kubsurat hai
jo apne btaya ki kisi chij ko mitana asan hai pr bnana muskil
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