मेरी चिथड़ा चिथड़ा ,
बेस्वाद और संकडी कहानी में अपने,
लिखा है बहुत कुछ,
घर,पडोस,या फ़िर खेत-खलिहान,
कुन्डी में नहाते ढोर लिखे है कोने में कहीं,
बेमेल ही सही पर शामिल तो किया,
कम तौल कर कमा खाता ,
गांव का बनिया भी खुदा ने,
वार तेंवार की साग सब्जी,
बाकी रहा आसरा, नमक-मिरच का,
अनजान ही रहा क्यूं अब तक,
दिनों में नहाती मां की मजबुरी से,
चुज्जे,बछडे और मुर्गियां ,
साथ हमारे सोती थी,
बनिये के ब्याज वाले पहाडे ,
सुनने से पके कानों को,
स्कुल की घन्टी से ज्यादा सुरीली ,
अपनी मुर्गियों की बांग लगती थी,
लगता था बस्ते की किताब से सरल,
कबड्डी-सितौलियों का खेल,
राशन का आधा केसोरीन,
लालटेन खा जाती थी,
जूते नही पहने दिनों तक,
पुरा बिल चुकाते पिताजी,
गोबर से सने हाथों वाली बहन का बालपन में ब्याह,
भुला नही हुं अभी भी,
गांव की गैर जरुरी आदतें,
सिमटी गई थी उनकी दुनियां
चुल्हे-चोके से पडोस के गांव तक बस,
दारू,नोट,और बस फ़िर वोट,यही लोक्तन्त्र था उनका,
टुकडों में बंटा है जीवन सारा,
उसी दुनियां का नंगजीराम हुं,
मेरी कहानी खुल्लम खुल्ला,
आम आदमी के रंग वाली,
सादे कवर के किताब सी,
अनावरण के इन्तजार में
बरसों से बनी पट्टिका सा,
6 comments:
UTKRISHTH PRASTUTI
sirf ek shabd lajawaab
अद्भुत अभिब्यक्ति
माणिक जी , आपने सरल शब्दों में हकीकत को बयाँ किया है ... बेहतरीन कविता ..
vastvikta ke karib aapki kavita padhkar maan vyathit hua ...shandaar kavita ke liye aabhar
jitni bhi tariph karun kam hogi .. dhanyavaad sir ji
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