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रविवार, 21 फ़रवरी 2010

वजूद------------[कविता]------श्रीश पाठक 'प्रखर'

अब, कितना कठिन हो चला है..
कतरा-कतरा कर के पल बिताना.
पल दो पल ऐसे हों ,
जब काम की खट-पट ना हो..
इसके लिए हर पल खटते रहे..
बचपन की नैतिक-शिक्षा,
जवानी की मजबूरी और
अधेड़पन की जिम्मेदारियों से उपजी सक्रियता ने..
एक व्यक्तित्व तो दिया..पर...
पल दो पल ठहरकर,
उसे महसूसने, जीने की काबलियत ही सोख ली..
संतुष्टि ; जैसे आँख मूँद लेने के बाद ही
आ पाती हो जैसे.. पलकों पर
ज़माने भर का संस्कार लदा है....
बस गिनी-गिनाई झपकी लेता है.
पूरी मेहनत, पूरी कीमत का रीचार्ज कूपन ..
थोड़ा टॉक टाइम , थोडी वैलिडिटी ..
यही जिंदगी है अब, शायद
जो एस. एम.एस. बनकर रह जाती है......
बिना 'नाम' के आदमी नहीं हो सकता,
'आदमीयत' पहचान के लिए
काफी नहीं कभी भी शायद .....
और 'नाम' का नंबर ....
वजूद दस अंकों में....
हम ग्लोबल हो रहे....
आपका नाम क्या है..?
माफ़ करिए.....जी...
आपका नंबर क्या है......?

5 comments:

Mithilesh dubey ने कहा…

आधुनिक शब्दो के प्रयोग से आपने कविता को एक अलग ही दिशा प्रदान की , रचना बढ़िया बन पड़ी ।

shikha varshney ने कहा…

ek alag tarah ki khubsurat rachna

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

शब्दों का सुन्दर चयन!
बढ़िया रचना!

जय हिन्दू जय भारत ने कहा…

पाठक जी आपकी रचना बहुत अच्छी लगी ।

Unknown ने कहा…

श्रीष भाई आपने आधुनिक शब्दो के प्रयोग से कविता को और बढ़िया प्रारुप दे दिया है , अच्छे शब्दो के प्रयोग के साथ आपकी कविता अच्छी लगी ।