बेवज़ह बातों ही बातों में सुनाना क्या सही है
भूला-बिसरा याद अफसाना दिलाना क्या सही है
कुछ न कुछ तो काम लें संजींदगी से हम ए जानम
पल ही पल में रूठ जाना और मनाना क्या सही है
मुस्करा ऐसे कि जैसे मुस्कराती हैं बहारें
चार दिन की ज़िन्दगी घुट कर बिताना क्या सही है
ख्वाब में आकर मुझे आवाज़ कोई दे रहा है
बेरुखी दिखला के उसका दिल दुखाना क्या सही है
तुम इन्हें सहला नहीं पाए मेरे हमदर्द साथी
छेड़ कर सारी खरोचें दिल दुखाना क्या सही है
अब बड़े अनजान बनते हो हमारी ज़िन्दगी से
फूल जैसी ज़िन्दगी को यूँ सताना क्या सही है
ज़िन्दगी का बांकपन खो सा गया जाने कहाँ अब
सोचती हूँ ,तुम बिना महफ़िल सजाना क्या सही है .
सोमवार, 18 जनवरी 2010
तुम बिना महफ़िल सजाना क्या सही है ----(निर्मला कपिला)
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7 comments:
बहुत अच्छे , मन की उहा-पोह को शब्द दे दिए हैं |
तुम इन्हें सहला नहीं पाए मेरे हमदर्द साथी
छेड़ कर सारी खरोचें दिल दुखाना क्या सही है
dil ki tah tak jati hain ye panktiyan ..bahut sunder
"तुम इन्हें सहला नहीं पाए मेरे हमदर्द साथी
छेड़ कर सारी खरोचें दिल दुखाना क्या सही है"
बहुत ही भावपूर्ण रचना !!
ज़िन्दगी का बांकपन खो सा गया जाने कहाँ अब
सोचती हूँ ,तुम बिना महफ़िल सजाना क्या सही है .
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क्षमा सहित निवेदन है कि क्या "बिना" की जगह पर "बिन" नहीं होना चाहिए?
ग़ज़ल की ले में बिना बाधक सा बन रहा है.
वैसे ग़ज़ल के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं है.
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इसके अलावा ग़ज़ल बहुत ही अच्छी लगी
ज़िन्दगी का बांक पन खोगया जाने कहां---वाह क्या बात है कपिला जी ! सुन्दर गज़ल के लिये बधाई ।
हर एक शेर बहुत ही जोरदार ।। वाह
poori ghazal behtareen hai. radif se udhe hain sher, badhai.
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