सभ्यता और संस्कृति के विकास का आरंभ परिवारसंस्था के साथ जोड़ा जा सकता है । पौराणिक और आध्यात्मिक दृष्टि से इसके उद् भव की जो भी गाथायें या कारण हैं, समाज शास्त्रीय दृष्टि से मनुष्य के भीतर जन्मे सहयोग और अनुराग को परिवार का आधार कहा जाता है । सहयोग और सदभाव का जन्म ना होता तो न स्त्री-पुरुष साथ रहते , न संतानों का जिम्मेदारी से पालन होता और न ही इस तरह बनं कुटुंब के निर्वाह के लिए विशिष्ट उद्दम करते बनता । बच्चो को जन्म और प्राणी भी देते है । एक अवस्था तक वे साथ रहते हैं और अपना आहार खुद लेने लायक स्थिति में पहुचने पर अपने आप अलग हो जाते हैं , उन्हे जन्म देने वाले को भी तब उनकी चिंता नहीं रहती ,। विकास की इसी यात्रा के पिछे कहीं न कहीं परिवारसंस्था ही विद्दमान है । यदि वह संस्था ना होती तो सीधे प्रकृति से आहार लेने और अपने शरिर का रक्षण करने के सिवा कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं थी । मनुष्य सभ्यता का इतिहास परिवार बसाने और उसकी आवश्यकता पूरी करने , उसके सदस्यो मे विकास की चिंता करने के बिंदु से आरंभ होता है । एक दुसरे के लिए त्याग , बलिदान , उदारता , सहिष्णुता , सेवा और उपकार जैसे मानवीय आध्यात्मिक मूल्यो की प्रयोगशाला भी परिवार का परिकार ही है ।
अब परिवार संस्था टूटने के कगार पर है । समाजशास्त्रि कहते हैं कि इस दुर्घटना के कारण परिवार के सदस्य एक दूसरे के प्रति सेवा और समाजशास्त्रि मानते हैं कि समाज , देश और विश्वमानवता जैसी धारणाँये भी परिवार का ही विकसित रुप हैं । पति-पत्नि और उनकी संतान से बनी इकाई में जब संतानो के पत्नि - बच्चे भी जुड़े तो संयुक्त परिवार का उदय हुआ । संयुक्त परिवारों के समूह ने बस्ती , ग्राम , और नगर के रुप में उत्सर्ग का भाव रखने के स्थान पर स्वार्ती-संकीर्ण होने लगे हैं । अपने सुख और भोग के लिए अंत्यन्त आत्मीय स्वजन की बलि चढ़ाने में अब हिचक भी मिटती जा रही हैं ,।
परिवार के विकास का एक प्रयोग इस सदी के आरंभ में ' कम्यून लार्जर फैमिली ' के रुप में किया गया था । साम्यवादी व्यवस्था के शुरुआती दिंनो मे प्रयोग चले भी । जहाँ साम्यवादी व्यस्था नहीं थी , वहां सहकारी प्रयोगो में उसका प्रभाव दिखाई दिया ,। आँठवा दशक पूरा होने तक साम्यवादी व्यवस्था दम तोड़ने लगी ।। उसके साथ 'कम्यून' और 'सहकारी' जीवन के प्रयोग भी लड़खड़ा गये । परिवारसंस्था का आधार खिसकने लगने का यह एक उपलक्षण मात्र हैं , मुख्य समस्या इसके अस्तित्व पर मँडराने लगे संकट और गहराते जाने की है । संकट का स्वरुप कुछ इस तरह है । इस शताब्दी का उत्तरार्द्ध शुरु होने तक भारत में संयुक्त परिवारों का प्रचलन लोकप्रिय था । माता पिता अपने बच्चों और उनकी संतानो के साथ मजे में रहते थे । तीन और उससे ज्यादा पीढ़ीयाँ भी एक ही परिसर में रहती , एक ही चौके में बना भोजन करतीं और सुख-दुःख को हार्दिक स्वीकृति से निभाती चलती थीं । छ़ठे सातवें दशक में संयुक्त परिवार बिखरने लगे । ये अपवाद पहले भी थे , जिनमें पति पत्नि और उनके बच्चे माँ-बाप से अलग बस जाते थे , लेकिन अनुपात बीच-पच्चिस प्रतिशत ही था । गाँव, समाज और रिशतेदारी में उन्हे निंदित भाव से देखा जाता था । सातवें दशक में सॅयुक्त परिवार की टूट को सहज भाव से देखा जाने लगा , क्योंकि वह यत्र-तत्र बहुतायत में घटने लगी थी ।
बीस-पच्चीस वर्षो में संयुक्त परिवारो का काम तमाम हो गया । अब बारी एकल परिवारो की है । जिन्हे 'वास्तविक ' और' 'मूल' जैसे विशेषणो से संबंधित किया जाता है । पति -पत्नि पहले भी कामो में हाथ बटाते और एक दूसरे के दायित्वों को संभालते हुए स्वतन्त्र व्यक्तित्व बनाये रखते थे । परन्तु अब स्वतन्त्र का आग्रह अलग रुप ले चुका है । अब इसका मतलब ही 'अंह' से शुरु हो रहा है । अब पति-पत्नी के निजी एकांतिक संसार की तरह बच्चो में भी प्राइवेसी का आग्रह बढ़ने लगा है ।
महानगरो में बिना विवाह के साथ रहने और संतान को जन्म देने की प्रवृत्ति भी जड़े जमाने लगी हैं । इस तरह का सहजीवन जब तक मन करे साथ रहने और बाद में अलग हो जाने की छूट देता है । उस स्थिति में किसी का भी किसी के प्रति दायित्व नहीं बनता । न आपस में और न ही बच्चो के प्रति । ये प्रवृत्तिया परिवार संस्था पर मँडराते जा रहे संकट की पहचान हैं । जिस आत्मियता , स्नेह और उत्सर्ग की भावना ने उसका आधार रखा वहीं लुप्त हो गया तो संकट की विभीषिका का सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है ।
शनिवार, 2 जनवरी 2010
परिवार के साथ सभ्यता और संस्कृति भी दाव पर (मिथिलेश दुबे)
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