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सोमवार, 21 दिसंबर 2009

मान व अहम् -------(डा० श्याम गुप्त .)

तुम पुरुष अहम् के हो सुमेरु ,
मैं नारी आन की प्रतिमा हूँ |
तुम पुरुष दंभ के परिचायक ,
मैं सहज मान की गरिमा हूँ |



मैं परम शक्ति, तुम परम तत्व,
तुम व्यक्त भाव मैं व्यक्त शक्ति |
तुमको फिर रूप-दंभ कैसा,
तुम बद्ध जीव मैं सदा मुक्त |



जिस माया में तुम बंध जाते,
मैं ही वो माया बंधन हूँ. |
तुम जीव बने हर्षाते हो ,
मैं ही जीवन स्पंदन हूँ. |



तुम मुझे मान जब देते हो,
बन शक्ति-पराक्रम हरषाऊँ |
तुम मेरी आन का मान रखो,
जीवन का अनुक्रम बनजाऊँ |



तुम मेरे मान का मान धरो,
मैं पुरुष अहम् पर इठलाऊँ |
तुम मेरी गरिमा पहचानो,
मैं सृष्टि-क्रम बनी हरषाऊँ ||



बन पूरक एक दूसरे के,
इक दूजे का सम्मान करें |
तुम मेरे मान की सीमा हो ,
मैं पुरुष अहम् की गरिमा हूँ ||

1 comments:

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है अभी किसी ब्लाग को पढ कर मैं इसी विषय पर सोच रही थीकि नारीवाद पर इतनी बहस क्यों सब निरर्थक है बस इसी एक स्पम्दन की जरूरत है। इस लाजवाब कविता के लिये डक्टर श्याम जी को बहुत बहुत बधाई