यार पुराने छूट गए तो छूट गए
कांच के बर्तन टूट गए तो टूट गए
सोच समझ कर होंट हिलाने पड़ते हैं
तीर कमाँ से छूट गए तो छूट गए
शहज़ादे के खेल खिलोने थोड़ी थे
मेरे सपने टूट गए तो टूट गए
इस बस्ती में कौन किसी का दुख रोये
भाग किसी के फूट गए तो फूट गए
छोड़ो रोना धोना रिष्ते नातों पर
कच्चे धागे टूट गए तो टूट गए
अब के बिछड़े तो मर जाएंगे ‘परवाज़’
हाथ अगर अब छूट गए तो छूट गए
2 comments:
बहुत ही लाजवाब गजल है, मैं तो जतिंदर जी का मुरीद हो गया।
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जिसपर हमको है नाज़, उसका जन्मदिवस है आज।
कोमा में पडी़ बलात्कार पीडिता को चाहिए मृत्यु का अधिकार।
बेहद लाजवाब व उम्दा रचना । बधाई परवाज जी आपको
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