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रविवार, 13 दिसंबर 2009

सत्य ! तुम्हें मैं जीना चाहता हूँ ---------- (प्रताप नारायण सिंह )

सत्य !
तुम्हें मैं जीना चाहता हूँ ।




चेतनता के प्रथम पग पर ही
मुझे ओढ़ा दिए गए
आवरणों के रंध्रों में छुपे
तृष्णा के असंख्य नन्हे विषधरों
के निरंतर तीक्ष्ण होते गए विषदंतों से
क्षत विक्षत,
अचेतना के भँवर में डूबते उतराते,
तुम्हारे गात को
अपनी आँखों में भरना चाहता हूँ.




प्रचलन और परिपाटियों से जन्मे,
मेरे भ्रामक अहम की
जिजीविषा के लिए,
तुम्हारे हिस्से की रोटी छीनकर,
अनवरत तुम्हें भूखा रख कर,
हड्डियों पर चढ़े खाल का
पुतला बना दिए गए
तुम्हारे बदन को
स्पर्श करना चाहता हूँ.



मेरी निरर्थक
श्रेष्ठता सिद्धि के
निरंतर बढ़ते गए
दबावों से झुक कर
दुहरा हुए
तुम्हारे मेरुदंड को
स्व के साहस की
खपच्चियों का सहारा देकर
उन्हें पुनः सीधा कर
तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ.



सत्य !
तुम्हें मैं जीना चाहता हूँ...
एकाकीपन के पर्दे में छुपकर नहीं...
लज्जा के घेरे में सिमटकर नहीं...
जुगुप्सा की पर्तों में लिपटकर नहीं...
अपितु
अपना सम्पूर्ण आत्मबल सहेज,
तुम्हारे रुग्ण तन मन को व्याधि मुक्त कर...
मन की सतह पर उग आयीं
वर्जनाओं और निषिद्धियों की
कटीली झाड़ियों को नष्ट कर...
सम्पूर्ण जगत के समक्ष,
पूर्णतः प्रेम युक्त हो,
पूरे मान और अभिमान के साथ
तुम्हें जीना चाहता हूँ.

1 comments:

parveen kumar snehi ने कहा…

prataap ji, is satya ko ek baar nahi, bar-bar jeene ko man chahta hai.
dhanywad.