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शनिवार, 21 नवंबर 2009

शाम >>

शाम की छाई हुई धुंधली चादर से


ढ़क जाती हैं मेरी यादें ,

बेचैन हो उठता है मन,

मैं ढ़ूढ़ता हूँ तुमको ,

उन जगहों पर ,

जहां कभी तुम चुपके-चुपके मिलने आती थी ,

बैठकर वहां मैं

महसूस करना चाहता हूँ तुमको ,

हवाओं के झोंकों में ,

महसूस करना चाहता हूँ तुम्हारी खुशबू को ,

देखकर उस रास्ते को

सुनना चाहता हूँ तुम्हारे पायलों की झंकार को ,

और देखना चाहता हूँ

टुपट्टे की आड़ में शर्माता तुम्हारा वो लाल चेहरा ,

देर तक बैठ मैं निराश होता हूँ ,

परेशान होता हूँ कभी कभी ,

आखें तरस खाकर मुझपे,

यादें बनकर आंसू उतरती है गालों पर ,

मैं खामोशी से हाथ बढ़ाकर ,

थाम लेता हूं उन्हें टूटने से ,

इन्ही आंसूओं नें मुझे बचाया है टूटने से ,

फिर मैं उठता हूं

फीकी मुस्कान लिये

एक नयी शुरूआत करने ।

3 comments:

Mithilesh dubey ने कहा…

दिल को छु लेने वाली लाजवाब अभिव्यक्ति ।

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

आपकी कविता ने सुबह के माहौल में भी शाम का एहसास जगा दिया।
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क्या स्टारवार शुरू होने वाली है?
परी कथा जैसा रोमांचक इंटरनेट का सफर।

Nirbhay Jain ने कहा…

नई शुरुवात के इतने बहाने ........ और उनका सजीव वर्णन बहुत अच्छा लगा
बधाई

http://masthindi.blogspot.com