प्रिये ,
आज तुम फिर क्यों ?
इतनी देर से आयी हो ,
तुम्हारे इंतजार में मैंने
कितने ही सपने सजाये
पर तुम्हारे बगैर ये कितने
अधूरे से हैं ।
मैंने तो कितनी ही बार
तुमसे शिकायत की
पर
तुमने हमेशा ही अपनी
मुस्कुराहट से ,
जीत लिया मुझे,
तुमसे इस तरह तुम्हारी शिकायत करना
अच्छा लगता है मुझे ,
प्रिये,
तुम्हारा इंतजार करते- करते
मैंनें बंद कर ली थी आंखें,
बंद आंखों में तुम्हारी
यादे तैरने लगी थी ,
एक उम्मीद थी कि
शायद इन यादों के साथ
नींद के आगोश में
समा जाऊं मैं ,
करवटें बदल- बदल कर
कोशिश की थी ,
रात भर सोने की
पर
सफल न हो सका था ।
कमरे के दरवाजे से
मंदिर के जलते दिये
की रोशनी ,
चांद की किरणों को
मद्धम कर रही थी ,
मैं तो चुपचाप ही ये
खेल देख रहा था ।
ऐसे में हवा के एक झोंके ने,
बुझा दिया था इस रोशनी को ,
जिसे देख मैं इंतजार कर रहा था तुम्हारा,
उस झोंके ने कोशिश की थी
मेरे विश्वास को तोड़ने की ,
पर मुझे पता है कि
तुम आओगी जरूर प्रिये ,
पर
देर से ही
और मैं
तुमसे करूंगा ढ़ेर सारी
शिकायतें
तुम चुप रह कर सुनती रहोगी
फिर
मुस्कराकर मेरा दिल जलाओगी
प्रिये ,
तुम्हारी ये अदा
मुझे सताती है ,
मेरे दिल को भाती है
इसलिए तो
तुम्हारा इंतजार करना
अच्छा लगता है ।
गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009
प्रिये...................................कविता ( नीशू तिवारी )
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4 comments:
प्रेम में डूबी हुई कविता को शब्दों के माध्यम से पूरी तरह डूबो दिया है आपने । सरल शब्द में समर्पण की भावना आपने सहजता से पेश की है । अच्छा लगा पढ़कर । शुभकामनाएं
अपने प्रिय को स्मरण करते हुए यादों के चिराग ख़ूबसूरती से जलाए हैं।
बहुत सुन्दर भावपूर्ण!
बहुत सुन्दर.
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