प्रीति मिले सुख-रीति मिले, धन-प्रीति मिले, सब माया अजानी। कर्म की, धर्म की , भक्ति की सिद्धि-प्रसिद्धि मिले सब नीति सुजानी । ग्यान की कर्म की अर्थ की रीति, प्रतीति सरस्वति-लक्ष्मी की जानी । रिद्धि मिली,सब सिद्धि मिलीं, बहु भांति मिली निधि वेद बखानी । सब आनन्द प्रतीति मिली, जग प्रीति मिली बहु भांति सुहानी । जीवन गति सुफ़ल सुगीत बनी, मन जानी, जग ने पहचानी ॥ जब सिद्धि नहीं परमार्थ बने, नर सिद्धि-मगन अपने सुख भारी । वे सिद्धि-प्रसिद्धि हैं माया-भरम, नहिं शान्ति मिले,हैंविविध दुखकारी। धन-पद का, ग्यान व धर्म का दम्भ, रहे मन निज़ सुख ही बलिहारी। रहे मुक्ति के लक्ष्य से दूर वो नर, पाठ-भ्रष्ट बने वह आत्म सुखारी । यह मुक्ति ही नर-जीवन का है लक्ष्य, रहे मन,चित्त आनंद बिहारी । परमार्थ के बिन नहिं मोक्ष मिले, नहिं परमानंद न क्रष्ण मुरारी ।। जो परमार्थ के भाव सहित, निज़ सिद्धि को जग के हेतु लगावें । धर्म की रीति और भक्ति की प्रीति, भरे मन कर्म के भाव सजावें । तजि सिद्धि-प्रसिद्धि बढें आगे, मन मुक्ति के पथ की ओर बढावें । योगी हैं, परमानंद मिले, परब्रह्म मिले, वे परम-पद पावें । चारि पदारथ पायं वही, निज़ जीवन लक्ष्य सफ़ल करि जावें । भव-मुक्ति यही, अमरत्व यही, ब्रह्मत्व यही, शुचि वेद बतावें ।
रविवार, 27 सितंबर 2009
परमार्थ--------"डा. श्याम गुप्त"
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6 comments:
डाo श्याम जी , छंद सवैया पढ़कर मन आनंदित हो गया । बहुत ही सशक्त रूप से लेखन किया है आपने । शब्द भी प्रभावशाली है । बधाई
लाजवाब । बहुत ही सुन्दर , प्रभावपूर्ण , सशक्त लेखन ।
hindi ka prasar karne ke liye dhanyawad
बहुत ही सुन्दर रचना। श्याम जी का बहुत-बहुत आभार........
मेरा स्वरचित नया छंद ’श्याम सवैया ” पसन्द करने व उत्साह वर्धन के लिये सभी का आभार ।
हिंदी साहित्य मंच----
इसे पूरी पन्क्तिको एक लाइन में लिखा जाना चाहिये--यथा-
"प्रीति मिले सुख .... ,सब माया अजानी।
कर्म की,धर्म की,भक्ति....सब नीति सुजानी।
ग्यान की.........................।
रिद्दिे मिली........................।
सब आनंद........................।
जीवन गति...................पहचानी।"
------इसी तरह..।
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