अखबार
मैं रोजाना पढ़ता हूँ अखबार
इस आशा के साथ
कि-
धुंधलके को चीरती सूर्य आभा
लेकर आई होगी कोई नया समाचार....।
लेकिन पाता हूँ
रोजाना प्रत्येक कॉलम को
बलात्कार, हत्या,
और दहेज कि आग से झुलसता
या फिर धर्म की आड में
खूनी होली से सुर्ख सम्पूर्ण पृष्ठ
साथ में होता है
राजनेताओं का संवेदना संदेश
आतंकवाद के प्रति शाब्दिक आक्रोश
जो इस बात का अहसास दिलाता है
सरकार जिन्दा तो है ही
संवेदनशील भी है।
तभी तो ढ़ू्ढते हैं वे हर सुबह
निंदा और शोक संदेशों में
अपना नाम ।
फिर भी न जाने क्यों
अखबार में बदलती तारीख
और नित नये विज्ञापन
मुझे हमेशा आकर्षित करते हैं
जिससे मैं देश की प्रगति को
सरकारी आंकडों से जोडता हूँ
और इन आंकडों को
‘मेरा भारत महान’ वाली गली में
ले जाकर छोडता हूँ ॥
डॉ.योगेन्द्र मणि
रविवार, 24 मई 2009
अखबार
5:34 pm
9 comments
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9 comments:
bahut badhiya rachana .badhai.
bahut khub ........sundar kavita
adbhoot doctor saab...
कमाल की सटीक प्रस्तुति है आभार
योगेन्द्र जी , आपकी बहुत सशक्त प्रभाव छोड़ रही है ।
डॉ. मणि जी,
एक अच्छी कविता जो पाठक को जोड़े रखती है, पूरे अखबार से। रोजनामचे के पूरे प्रवाह मैं अपनी उहापोह और कुछ ना कर पाने की लाचारी का अच्छा चित्रण करती कविता के लिये बधाईयाँ।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
वास्तविकता के करीब है आपकी यह रचना । गहरा प्रभाव छोड़ते है भाव ।
bahut hi sundar rachna aapki lagi . badhai
डाo योगेन्द्र जी आपकी यह रचना बहुत पसंद आयी । आपने समाज की सच्चाई को बरीकी से देखा । धन्यवाद
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