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रविवार, 29 मार्च 2009

एक कविता [निर्मला कपिला जी प्रस्तुति]



  1. अतीत कहाँ खो गया
  2. वो अतीत कहाँ खो गया
    जब मैं थी
    तुम्हारी धाती
    तुम्हारी भार्या
    तुम थे मेरे स्वामी
    मेरे पालनहार
    मैं थी समर्पित
    तुम को अर्पित
    अबला, कान्ता
    कामिनी,रमनी
    तुम थे मेरे
    बल,भर्ता
    कान्त कामदेव
    तुम मेरे पालनहा
    मुझ पर् निस्सार
    मेरी आँखों मे देखा करते
    मेरी पीडा समझा करते
    तुम थके हारे
    बाहरी उलझनों के मारे
    मेरे आँचल की छाँव मे
    आ सिमटते
    मेरा तन मन
    तेरी सेवा क
    आतुर हो उठते
    फिर होती
    रात की तन्हाई
    चंचल मन्मथ
    अनुग्रह, अनुकम्पा
    मित जाती
    सब तकरारें
    एक लय हो जाती
    दोनो की धुनकी की तारें
    आह्! वो लय
    वो सुर
    कहाँ खो गया
    मेरी पीढी का सुर
    बेसुर क्यों हो गया
    आज नारी हो गयी
    अर्पित से दर्पित
    समर्पित से गर्वित
    पुरुष भर्ता से हर्ता
    पालन्हार से शोषणकर्ता
    दायित्व से कर्तव्यविमूढ
    उसका रूह पर नहीं
    जिस्म पर अधिकार हो गया
    सुरक्षा का दायित्व
    समाप्त हो गया
    क्योंकि
    विवाह पवित्र बन्धन नही
    व्यापार हो गया
    मेरा अतीत
    जाने कहाँ खो गया

4 comments:

हिन्दी साहित्य मंच ने कहा…

कपिला जी , आपकी रचना सदैव किसी विषय के समीकरण को इंगित करती है । यह कविता नारी के स्वरूप का चित्रण कर रही है । और सच ही कहां रहा वो बंधन । बेहद सुन्दर रचना ।

Unknown ने कहा…

कविता के माध्यम से आपने अपनी बात सशक्त ढ़ग से पेश की है । इस सुन्दर रचना के लिए धन्यवाद ।

daanish ने कहा…

आज नारी हो गयी
अर्पित से दर्पित
समर्पित से गर्वित
पुरुष भर्ता से हर्ता
पालन्हार से शोषणकर्ता
दायित्व से कर्तव्यविमूढ

ek achhi aur sachchi kavita
nek aur be-baak vichaar....
badhaaee
---MUFLIS---

राज भाटिय़ा ने कहा…

उसका रूह पर नहीं
जिस्म पर अधिकार हो गया
सुरक्षा का दायित्व
समाप्त हो गया
क्योंकि
विवाह पवित्र बन्धन नही
व्यापार हो गया
मेरा अतीत
जाने कहाँ खो गया

आज का कडबा सच आप ने अपनी कविता मे लिख दिया.
धन्यवाद